Thursday, January 30, 2020

इज़हार इंकार का खेल

चलो बहुत हुआ इज़हार इंकार का खेल
अब कुछ ना कहने में ही सुकून है ।
इतना कहने सुनने पर भी तुम वो समझ ना सकी
जो मैं तुम्हें महसूस करवाना चाहता था।
तुम वो ना कह सकी जो मैं सुनना चाहता ।
तुममें और मुझमें सदियों का फासला था।
मेरी कल्पनाओं और यथार्थ में बहुत फर्क था।
रोज़ एक ही सवाल का जवाब खोजता रहा
की मैं कँहा गलत था ।
इश्क़ करना गलत था या तुमसे कोई उम्मीद रखना
गलत था ।
हर एक भावना व्यक्त करना गलत था या घड़ी घड़ी तुम्हारी फिक्र करना गलत था ।
गलत अगर कुछ नहीं था तो फिर शायद ग्रह नक्षत्र का कोई फेर था।
सही गलत जो भी था, बस इतना तय था मैं तुम्हारी ज़िन्दगी में दूर दूर तक शामिल नहीं था ।
महसूस करना,सुनना समझना सब अपनी जगह था,
पर मेरी तरफ से मेरा इश्क़ मुक़म्मल था।
अब खुद को अच्छे से समझा लिया था,तुम्हारे आश्वासन तोड़ आगे बढ़ चुका था।
तुम्हें खो देने के डर को अब जीत चुका था ।
तुम्हरी राह तकते तकते खुद की मंज़िल चुन चुका था ।
तुम्हें पाने की कोशिश करते करते,मैं खुद को पा चुका था ।
तुम्हारे होने ना होने का अब कोई मलाल ना था,
मैं अपने इश्क़ पे फना हो मस्त मलंग हो चुका था ।

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