Tuesday, January 14, 2020

एक सरकारी आवास को,अपना घर बनाया था

एक सरकारी आवास को,अपना घर बनाया था |
कुछ और से नहीं
दोस्ती,मोहबत और चाय के रंगों से सजाया था
सामान ज्यादा कुछ नहीं था पर दिल भरे थे
किसी के भी कमरे और दिल में ताले नहीं थे
सब कुछ खुला था, बे रोकटोक आते जाते थे |
सुख दुःख में सबने एक दूसरे को संभाला था |
जाने कितनी महफ़िलो को चाय की चुस्कियों और
ग़ज़लों से सजाया था |
बे सिरपैर की बातें, हँसी के ठहाके
हरदम हमारे साथ रहते थे |
प्यार भरी गालियों को दीवारों ने खुद में समेट रखा था |
शामें अक्सर रातें हो जाया करती थी ,
नींद आँखों में आ आ के दम तोड़ देती थी |
सुबह कुछ अलसाई सी होती ,
चाय हर किसी को बड़े से कप में चाहिए होती थी |
जिम्मेदारियाँ तो थी सब के ऊपर,
लेकिन उस घर में अलग ही बेफिक्री थी |
कहीं से भी थक हार के आते थे लेकिन
वो हम सब का अपना सुकून घर था |
सुना है अब वो आवास खाली है ,
फिर कोई गया नहीं वहाँ जो उसको घर बना सकता था |
दरों ओ दीवार में हमारे जैसे जो अपनापन भर सकता था |
एक सरकारी आवास था जिस को हमने आशियाना बनाया था,
दुनिया की भीड़ से जुदा होकर खुद की शख्सियत को पहचाना था |

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