Thursday, December 10, 2015

बदला कौन था ये तो कहना मुनासिब ना था

बदला कौन था ये तो कहना मुनासिब ना था
पर ना तुम पहले जैसे थे और ना हम पहले जैसे थे
वक़्त को कुछ दोष दिया जा सकता था
पर वो भी क्या मुनासिब होता
जो दिल के कोने में दबी हुई मोहबत थी
जिम्मेदारियों ने उस मोह्बत को साँस लेने तक का भी वक़्त ना दिया था
और आलम ये था की दिल के क़ब्रिस्तान में दफ़न उस मोह्बत
को लेकर जिए तुम भी जा रहे थे और जिए हम भी जा रहे थे
बदला कौन था और कौन नहीं था ये भी कहना मुनासिब ना था

अंदर कुछ ज़िंदा है यही बहुत था

मैं बंधन में था या बंधन मुझमें
मैं पूरा था फिर भी अधूरा था
बहुत कुछ कहना चाहता था पर खामोश रहा
जिसका इंतज़ार था वो इंतज़ार ही रहा
अपनी उलझनों में उलझा दुसरो की उलझने दूर करता रहा
हटके जीना चाहता था पर हट ना सका
खुद को खो कर खुद को ढूंढ़ता रहा
कभी दोराहे कभी चौराहे पे रहा
हर राह से अपनी मंज़िल को पता रहा
पर मैं अपने मक़सद से और मेरा मक़सद मुझसे अनजान रहा
हासिल बहुत कुछ था पर खाली था
जो शुरू नहीं हुआ था उस का अंत आ गया था
जो टूट गया था वो कभी जुड़ा ही नहीं था
मैं रुका था फिर भी चल रहा था
मैं ज़िंदा था या कुछ एहसास ज़िंदा थे जानता नहीं
पर अंदर कुछ ज़िंदा है यही बहुत था