Sunday, July 3, 2016

रोज़ रोज़ अपने दिल को यूँ समझाना अब मुनासिब नहीं ।

हम फिर आज वही आ गए जहां से शुरू किये थे... मेरी कुछ समझ नहीं आ रहा था , आप खुश थी या आप की फिर कोई और ही मज़बूरी थी । कुछ बदले बदले हालात हो गए थे , आप के और मेरे दरमियाँ ।
एक बात तो तय थी मेरी भावनाएं जहां थी आप वहाँ तक पहुंच ही नहीं पाई थी
आप भी दुनिया के मायनो पे चल थी सिर्फ ऊपरी सतह पे , आप मेरे इश्क़ मेरी मोह्बत की गहराई समझ ही नहीं पाई ।
या फिर समझ के भी नासमझ बन गयी । कसूर किसका था मेरा , मेरी मोह्बत का या मैं गलत सदी में आ गया था ।
आप वो तो नहीं रही जिस से मुझे इश्क़ हुआ था । आज जानता हूँ आप बहुत दूर जा चुकी है , दिल तो बहुत बार करता है आप को रोक लू , अपने आप से दूर जाने ना दू । लेकिन ये भी समझता हूँ मैं आप का कुछ भी नहीं , आप रुक भी गयी तो मेरी होकर नहीं रह सकती । ऐसे में आप को पा भी लिया तो क्या , हासिल करना ही तो मतलब नहीं ।
मुझे आप का साथ चाहिए जरूर था लेकिन ऐसे नहीं । आप का साथ ऐसे चाहिए था की हम दोनों में शब्दों की जरुरत ना हो , मैं कुछ ना बोलू और आप समझ जाये , आप कुछ ना बोले और मैं समझ जाऊ ।
पर अफ़सोस मुझे हर बार शब्दों का सहारा लेना पड़ा ।
आप के साथ ऐसे रहने से बेहतर होगा मैं आप से दूर चला जाऊ , ताकि मेरे ख्वाबो ख्यालो में जो आप की तस्वीर है वो बरक़रार रहे ।
रोज़ रोज़ अपने दिल को यूँ समझाना अब मुनासिब नहीं ।

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