Wednesday, June 8, 2016

​​" और कुछ नहीं "

​​" और कुछ नहीं " ये अल्फ़ाज़ होते थे हमेशा
वक़्त ऐ रुक्सत अलविदा कहने के लिए
और मैं समझ जाता था उस " और कुछ नहीं " ​ में
दबी हुई उनकी फ़िक्र और बेइंतहा मोहबत मेरे लिए
जानता था वो ज्यादा कुछ और कहेंगी नहीं
उनके बंधन उनकी मज़बूरी बखूबी पता थे मुझे
मैं अपना सार दिल निकल उनके सामने रख देता
और वो एक खिड़की भी खुली नहीं छोड़तीं थी अपने दिल की
ये थी मेरी और उनकी इश्क़ की दास्ताँ
मैं पूरी किताब लिख देता तो भी अधूरा था
और वो चंद अल्फाज़ों में पूरी थी ।

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