Monday, November 5, 2012

रोज़ मर मर के जी लेता हूँ फिर जी जी के मरता रहता हूँ

अब तो लगता है जैसे दम ही घुट जाये गा
आत्मा भी सांस लेने के लिए करहरा रही है
आंसू आँखों तक आते आते पानी खो देते है
दिल की जगह पे लगता है कोई पत्थर पड़ा हो
धडकता ही नहीं
अन्दर जो इंसानियत थी उस का क़त्ल हो गया है
बहुत पहेल ही शायद
जिस से भी मिलता हूँ वो अपनापन दे कुछ एहसान कर जाता है
जाने कितने एहसानों के बोझ के निचे दबा हूँ
सुन ने समझने की शक्ति भी चली गयी है अब तो
या फिर समझने की कोशिश नहीं करता हूँ
नज़र के सामने का अच्छा बुरा नज़र नहीं आता है अब
जाने कितने बरसो से कोई हलचल नहीं हुई इन में
मशीन के सामने बैठ बैठ मानव से मशीन बन गया हूँ
जीवित लोगो से सवांद कर ने की छमता खो चूका हूँ
निर्जीव वस्तू से बात करने में महारत हासिल कर चूका हूँ
दिल की भावनाए भी मशीनो से कहना सिख गया हूँ
किसी जगह हो कर भी उस जगह पे रहता नहीं
जिस जगह पे होता हूँ वो जगह कहीं मिलती नहीं
रोज़ मर मर के जी लेता हूँ फिर जी जी के मरता रहता हूँ
यही होती है शायद सफलता की कीमत जो आज मैंने चूका रहा हूँ
कभी जिंदादिल था आज सिर्फ जिंदा हूँ

1 comment:

Unknown said...

Bhaiya...No comments...:)