Saturday, October 6, 2012

बचपन की नासमझी तो पा नहीं सकता पर आज की समझदारी में भी कुछ नासमझी का प्रमाण रख सकू

बहेला फुसला के ज़िन्दगी हमे बचपन से समझदारी में ले आई
सुरुवाती सफ़र तो अच्छा था फिर ज़िन्दगी कुछ अपने रंग में आई
और फिर ज़िन्दगी हमे कुछ ऐसे रास्तो पे ले गयी
जन्हा न जाने कितनी दफे दिल टूटे न जाने कितने अपनों से मिल के बिछड़ गए
खुद के पैरो पे खड़े होते होते जाने कब वो अपने घर की देहलीज़ छुट गई
कभी भीड़ में तन्हाई खोजते रहे कभी तन्हाई भीड़ की कमी महसूस करा गई
दुनियादारी के नाम पे जाने ज़िन्दगी क्या क्या सिखाते चली गई
अब ज़िन्दगी के इस मोड़ पे पीछे पलट के देखता हूँ
तो वो नादान नासमझ बचपन हसंता मुस्कुराता मुझे अपनी और बुलाता है
पर अब मैंने जवाब्दारियों की बेडियो में में ऐसा जकड़ा हुआ हूँ
चाह कर भी वापस नहीं जा सकता पर कभी कभी कोशिश करता हूँ की
बचपन का वो निछल मन फिर पा सकू जिस में किसी के लिए कोई घृणा न हो
जिस किसी से भी मिलु बिना किसी फयदा नुक्सान के खुले दिल से मिलु
बचपन की नासमझी तो पा नहीं सकता पर आज की समझदारी में भी कुछ नासमझी का प्रमाण रख सकू

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