Thursday, May 5, 2016

मेरे मज़हब का मैं पहला पैग़म्बर बन गया

माना मेरे और तुम्हारे रिश्ते का कोई नाम नहीं
लेकिन हर रिश्ते का नाम हो ये भी तो जरुरी नहीं
जाने कब मेरे जन्म का धर्म छूट गया मुझसे
तुम से मोहबत मेरा नया मज़हब बन गया
एक मंगलसूत्र और सात फेरे से तुम किसी और की हो गयी सात जन्मों के लिए
कई कल्पो की मेरी मोह्बत , तुम को एक पल के लिए भी मेरी नहीं कर पाई
तुम खुश थी कहीं और किसी और के साथ
और मैं तड़प रहा था तुम्हारे लिए
जाने कितनी बार तुमसे कुछ कहना चाहा
लेकिन हर बार बात कल पे आके रुक गयी ,
वो कल जो कभी आया ही नहीं
जो बात अधूरी थी वो अधूरी रह गयी
मेरी हर कोशिश नाकाम रह गयी
ना तुम से पूरा कह पाया ना तुम से पूरा सुन पाया
अफसोस तो ये था, तुम्हारे लिए ज़माने के दस्तूरो का महत्व था
लेकिन मेरी अनमोल मोह्बत का कोई मूल नहीं था
मैं तुम्हारे लिए करना बहुत कुछ चाहता था
पर सब ख्यालो में रह गया
मेरा और तुम्हारा ये किस्सा सिर्फ ज़ुबानों पे रहा
हक़ीक़त ना बन पाया
मेरा जो इंतज़ार था वो इंतज़ार ही रहा
और मेरे मज़हब का मैं पहला पैग़म्बर बन गया

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