Thursday, December 10, 2015

बदला कौन था ये तो कहना मुनासिब ना था

बदला कौन था ये तो कहना मुनासिब ना था
पर ना तुम पहले जैसे थे और ना हम पहले जैसे थे
वक़्त को कुछ दोष दिया जा सकता था
पर वो भी क्या मुनासिब होता
जो दिल के कोने में दबी हुई मोहबत थी
जिम्मेदारियों ने उस मोह्बत को साँस लेने तक का भी वक़्त ना दिया था
और आलम ये था की दिल के क़ब्रिस्तान में दफ़न उस मोह्बत
को लेकर जिए तुम भी जा रहे थे और जिए हम भी जा रहे थे
बदला कौन था और कौन नहीं था ये भी कहना मुनासिब ना था

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