Monday, December 3, 2012

मन का सफ़र

चलती ट्रेन की खिड़की से झाँक कर देखा तो सब कुछ पीछे छुटता नजर आया,
जिन फासलो को तय करने के लिए सफ़र शुरू किया था,
उन मंजिलो से मिल नई मंजिल के लिए फिर निकल आया,
पीछे छूटते मंज़रो को देख ख्याल आया ऐसे ही बीती ज़िन्दगी भी छुट जाये तो क्या हो,
पर बीती जिंदगी तो मन के सफ़र का हिस्सा होता है जो छूटे नहीं छुटता,
न जाने मन मन ही मन में कितनो से मिलता है कितनो से बिछड़ता है,
मन का सफ़र काटे नहीं कटता, इस सफ़र का कोई अंत नहीं इसकी कोई मंजिल नहीं,
यह भटकता रहता है इसकी कोई सीमा परिसीमा नहीं,
ये कहीं भी आते जाता रहता है भूत वर्तमान भविष्य कहीं भी
मैं भी विवश हूँ इसके आगे न चाहते हुए भी इस सफ़र का मुसाफिर बन जाता हूँ,
मैं थक जाता हु पर ये मन का सफ़र चलता रहता है
मैं कहीं थम भी जाऊ पर ये कहीं थमने का नाम नहीं लेता

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