घर की पिछली दीवारों पे
धूल की परतों के नीचे
पत्थरों से लिखा हुआ
मेरा और तुम्हारा नाम
आज भी हमारे निस्वार्थ
प्रेम की मुक़ गवाही देता है,
ना तुम मुझसे बरसों से मिली हो
ना मैंने तुम्हें मिला हूँ,
फिर भी लगता है जैसे साए की तरह
हर वक़्त तुम मेरे साथ हो,
मैंने आज भी उन्हीं सात फेरे से बंधा हूँ
जिसे तुम बचपन का खेल समझ भूल चुकी हो,
फर्क बस इतना है तुम और मुझमें,
तुम खेल को खेल समझ खेलती रही
और मैंने उस खेल को
अपनी ज़िन्दगी समझ आज भी खेल रहा हूँ..
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