Monday, September 24, 2012

ज़िन्दगी और भी हसीं हो गयी होती

ज़िंदगी और भी हसीं हो गई होती, 

अगर तुमने फिर से पीछे पलटकर मेरी तरफ देख, 

मुस्कुराया न होता। एक वो दिन था और एक आज का दिन है, 

मैं आज तक उसी हसीन मुस्कुराहट के गुमान में हूँ।

वो एक हसीन धोखा था या फिर हकीकत, 

या फिर कुछ और ही था,

मेरी ज़िंदगी मोहब्बत के इतिहास का एक पन्ना बनकर रह गई।

झूठी तसल्ली

आज भी दिल को तेरी दरकार क्यों है,
जानता हूँ हम दोनों की मंजिलें अलग हैं। 
आज तुम जहाँ हो और जहाँ मैंने हूँ, 
वहां से हम दोनों का एक-दूसरे के लिए वापस लौट आना मुमकिन नहीं, 
फिर भी हर मोड़ पर मुझे तुम्हारे लौट आने की उम्मीद क्यों है?
इसी एक उम्मीद पर रोज़ घर से निकलता हूँ कि कहीं किसी मोड़ पर, 
तुम सब गिले-शिकवे भूलकर मेरी मोहब्बत को अपना लोगी। जानता हूँ ये सब मेरे दिल को बहलाने की एक कोशिश है, 
जिसका हकीकत से कोई वास्ता नहीं, 
पर मैं भी मजबूर हूँ। दिमाग तो बहुत समझदार है पर ये दिल भावनाओं के आवेग में बह जाता है,
 जिसके लिए हकीकत नहीं, तेरे नाम की एक झूठी तसल्ली ही काफी है।

Friday, September 21, 2012

ज़िंदगी की किताब के अब कुछ ही पन्ने

ज़िंदगी की किताब के अब कुछ ही पन्ने बाकी हैं, 

पिछले पन्नों को पलटकर देखता हूँ तो,

कुछ पन्ने उजाले से भरे हुए हैं और कुछ गहरे अंधेरों से,

पिछले पन्नों पर लिखी कुछ दास्तानें माँ को गुदगुदा जाती हैं, 

तो कुछ को पढ़कर आँखें नम हो जाती हैं। 

पन्ने पलटते-पलटते अक्सर ये एहसास होता है, 

जो मंजिल ज़िंदगी शुरू होने पर थी, उससे कहीं बहुत अलग है अब की मंजिल। 

जाने कितने निशान हैं अनगिनत लोगों के इन पन्नों में, 

कितनी मोहब्बत और नफरत भरी हुई है इन पिछले पन्नों में। 

पिछले पन्नों से गुजरती हुई ज़िंदगी, जैसे पर्दे पर चलती हुई कोई फिल्म का एहसास भी करा देती है।

जानता नहीं आगे के पन्नों पर और क्या-क्या लिखा है,

पर ये जरूर कह सकता हूँ, दुनिया की किताबों से जितना पढ़ा है, 

उससे कहीं ज्यादा सिखाया है ज़िंदगी ने।

कितना मुकम्मल रहा ये ज़िंदगी का सफर,

ये तो ऊपर वाले पे छोड़ रखा है, 

कोशिश यही है कि बाकी बचे पन्नों पर ज़िंदगी को कोई मुकम्मल अंत मिल जाए।

Thursday, September 20, 2012

माँ

लॉन की बेंच को आज आपकी कमी महसूस हो रही थी, 
शिकायत कर रही थी कि अब उसका कोई अपना उसके पास नहीं आता।
लॉन की घास भी कुछ सूख सी गई है, 
पूछा तो कहती है अब उसे आपके पैरों की नमी नहीं मिलती।
वो जो आपने तुलसी का पौधा लगाया था न, 
वो भी मुरझा गया है, कहता है अब माँ जल अर्पण नहीं करती। 
अब इन नादानों को कैसे समझाऊं कि जिस माँ ने इन सबको अपनत्व दिया था, 
उसकी और भी बहुत सी जिम्मेदारियाँ हैं, उसके अपनत्व के लिए तरसती और भी कई कोमल हथेलियाँ हैं,
 जिनको संस्कारों का पाठ पढ़ाने माँ उनके पास गई है। 
माँ तो एक ही है, पर उसके आँचल का प्यार पाने के लिए बेचैन बहुत हैं, 
इसलिए माँ को अपना सारा समय अपनी सभी संतानो में बराबर देना पड़ता है... 
तुम सब की वेदना मैं भी समझता हूँ, पर ज़रा उस माँ के लिए भी सोच लो, 
वो भी तुम सब के बिना इस सी वेदना को सहकर कहीं और अपने कर्तव्य को पूरा कर रही है।

Tuesday, September 11, 2012

फिर कभी ज़िंदगी के किसी मोड़ पर

फिर कभी ज़िंदगी के किसी मोड़ पर, 

मेरा और तुम्हारा आमना-सामना होगा। 

तुम्हारे बारे में तो कुछ कह नहीं सकता पर,

मेरे पास बहुत कुछ होगा कहने के लिए, 

वही जो पिछले बारह साल से दफ़न है मेरे सीने में। 

यूं तो रोज ही कहता हूँ तुमसे वही सब ख्यालों में, 

जो कभी तुमसे कहा नहीं हक़ीकत में। 

उस समय भी तुम दुनिया के दस्तूरों का वास्ता दे,

मेरी बातों को अधूरी में छोड़ गई थी, 

और आज भी मैं दुनिया के दस्तूरों से वाकिफ न हो सका।

तुमको दुनिया की फिक्र थी और मुझे तुम्हारी,

तुम्हारी ख़ातिर हर बात को, ख़ामोश कर दिया ताकि तुम पर कोई आँच न आ सके। 

तुम पर आने वाली हर आँच को तो रोक लिया मैंने, 

लेकिन खुद जल रहा हूँ पिछले बारह साल से, 

गुनाह सिर्फ इतना कि तुमसे मोहब्बत की, 

ऐसी मोहब्बत जो कि अधूरी और अनसुनी है अब तक। 

अब बस दुआ है कि फिर एक बार ज़िंदगी के किसी मोड़ पर, 

मेरा और तुम्हारा आमना-सामना हो। 

तुम दुनिया के दस्तूरों से तो बख़ूबी वाकिफ हो, 

अब तुम्हें खुद से वाकिफ करा सकूँ, 

जो तुम्हारे लिए मोहब्बत है मेरे सीने में,

वो आईने की तरह तुमको देख सकूँ, 

जब कभी मेरा और तुम्हारा आमना-सामना हो।

Monday, September 3, 2012

आपका नाम आया

ये तो नहीं जानता आप भी मुझसे मोहब्बत करती हैं या नहीं, 

पर अपने बारे में कह सकता हूँ, 

जब भी कोई ख्याल आया, 

ख्यालों में सबसे पहले आपका नाम आया।