गैरों के वारों से हम कहाँ चलने वाले थे।
चोट गहरी लगी दिल पे अपने लोगों की बातों से,
कभी सोचता हूँ मेरा कसूर क्या था,
मैंने तो सिर्फ सच्ची दोस्ती का फ़र्ज़ निभाया था।
खुदा ने कहा दोस्ती के फ़र्ज़ निभाते-निभाते,
एक वक्त ऐसा भी आता है,
जब कोई अपना ही बेहलाज ज़ख़्म दे जाता है,
जिसका कोई मरहम नहीं होता।
तुम ढूँढते रहते हो सुकून ज़िंदगी भर,
और हर बार सुकून तुमसे दो कदम दूर होता है।
No comments:
Post a Comment