मायूस होना तो कभी सिखा नहीं था,
जब कभी थोड़ी हिम्मत टूटी,
खुद को खुद का सहारा देकर
हम आगे बढ़ चले, ज़िंदगी से लड़ते चले।
ज़िंदगी ने जो बिछाए कांटे हमारी राह में,
हम उन्हें चुन-चुन कर अपने सर पर कांटो का ताज सजाते रहे।
बहुत मौके ऐसे आए जब ज़िंदगी हमसे दूर होती रही,
और हर मौके पर हम जाती हुई ज़िंदगी से दिल्लगी कर बैठे।
अब इसे ज़िंदगी से मोहब्बत का तोहफा कहिए,
या इश्क-ए-वफ़ा हर टूटती सांस पर,
ज़िंदगी हंसकर हमें गले लगाती रही।
इस तरह ज़िंदगी और हम साथ-साथ बढ़ते चले गए, लड़ते चले गए।
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