ज़िंदगी की राहों में चलते-चलते,
नन्हीं-नन्हीं हथेलियों में
ना जाने कब जीवन की डोर आ गई,
हमने भी पतंग की डोर समझ थाम कर
आसमान की ऊँचाइयों को छूने की कोशिश की,
उंगलियों से जब ख़ून निकला तब समझ आया,
ये पतंग की नहीं ज़िंदगी की कातिल डोर है
जो नन्हीं हथेलियों और मजबूत हाथों में फर्क नहीं करती...
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