पर ना तुम पहले जैसे थे और ना हम पहले जैसे थे
वक़्त को कुछ दोष दिया जा सकता था
पर वो भी क्या मुनासिब होता
जो दिल के कोने में दबी हुई मोहबत थी
जिम्मेदारियों ने उस मोह्बत को साँस लेने तक का भी वक़्त ना दिया था
और आलम ये था की दिल के क़ब्रिस्तान में दफ़न उस मोह्बत
को लेकर जिए तुम भी जा रहे थे और जिए हम भी जा रहे थे
बदला कौन था और कौन नहीं था ये भी कहना मुनासिब ना था
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